Wednesday, September 21, 2016

फूल की पीड़ा

काँटों की चुभन
तब सोच के
तोड़ते हो
न तुम फूल।
बस यही स्वार्थ है जब
टूटन की
उस पीड़ा
को जाते हो भूल।।

मुझको मिला
क्या नहीं मिला?
गुर्राते हो जब
इस बात पे हुज़ूर
बस यही क्रोध भाव है
दरिद्र और दलिद्र
उस रोष
का किसे देवें कसूर।।

ज़माना बदला है
सोचते हो जब
बदल गए
हैं सारे रिश्ते नाते
बस यही विकार है जब
खुद कोई
कैसा भी
रिश्ता न तुम निभाते।।

      -विशाल "बेफिक्र"

प्रकृति का क्रिया-कलाप

मधुर मधुर संगीत है ये
या चिड़ियों की चेहचाहर है
सिन्दूर- श्रृंगार है धरती का
या सूर्य-किरण का आकार है।

कलकल घुंघरू सा बजे ये
या नदी के पानी का बहाब है
मस्त यूँ होकर 'बेफिक्र' सा
या मदमस्त पवन का गुबार है।

महकता चहकता ये यौवन सा
या उपवन में फूलों की बयार है
रूठता मनवाता कोई बालक सा
या मौसम की बदलती बहार है।।

सुलगता जलता ये कोयले सा
या सूरज का बढ़ता ये ताप है
हर दिन नित्य ये वही घटना सा
ये प्रकृति का क्रिया-कलाप है।।
   
             विशाल "बेफिक्र"

तुम जब  छोड़ गए

अब कहाँ वो
   होगा सावन
अब कैसा ये
   होगा यौवन
तुम जब
   छोड़ गए
   यूँ तोड़ गए।।

अब कौन
   रहेगा खेवनहार
अब कैसे
   हो नैया ये पार
तुम जब
   छोड़ गए
   मुंह मोड़ गए।।

मेरा क्या मैं तो
   अब जी ही लूंगी
बहते इन आंसू को
   अब पी ही लूंगी
तुम को क्या?
तुम जब
    छोड़ गए
    झकझोर गए।।

उस माँ का क्या अब
    दोगे हिसाब
उस बाप को क्या अब
    दोगे जवाब
तुम जब
    छोड़ गए
    किस ओर गए।।

मुझको क्या मिला मैंने
   सब है खोया
सीमा पर जिसका सुहाग
   हैं यूँ सोया
बाकी को क्या?
तुम जब
    छोड़ गए
    यूँ खो गए।।

माना कि मौत तो
    आनो है सब को
पर क्या सही समय था
    ये पूछूँगी रब को
इतनी जल्दी क्यों?
तुम जब
     छोड़ गए
     मुंह मोड़ गए।।

     -विशाल "बेफिक्र"

Tuesday, September 20, 2016

बहका सा फिर रहा था

महफ़िल में ऐ दोस्त दिल को मिला
तभी आराम था
जब मुहब्बत से तेरी निगाहों का आया
इधर पैगाम था।

शोर था  शबाब था वहां शराब
का इंतज़ाम था
बस आपके ही इस तरफ देखने
भर का काम था।

जूनून सा छाया था मुझ पर इस जी
को क्या आराम था
बहका सा फिर रहा था मैं न लिए
कोई जाम था।

रोके न रुक रहा था जैसे दिल को
पहुँचाना कोई पैगाम था
तेरी अदा तेरे हुस्न के सिवा आँखों को
न कोई और काम था।

महफ़िल में ऐ दोस्त दिल को मिला
तभी आराम था
जब मुहब्बत से तेरी निगाहों का आया
इधर पैगाम था।

              विशाल"बेफिक्र"

तू बस रहना तैयार।

हकीकत से हो जब रूबरू
खुदी से जब हो न खफा
कर तू तब फैसले  ऐ दिल
क्या वफ़ा ? क्या बेवफा?

जूनून जब सर पे हो न चढ़ा
सुकून जब तक न मिला
होना तू न बेसबर  ऐ दिल
मत करना तू कोई सिला।

हो मजबूर या कोई गुरूर हो
चाहे किस्सा भी हो कोई सुना
चलना न तू उस डगर ऐ दिल
सफ़र हिफाज़त न हो सौ गुना।

कर उम्मीद खुद पे यकीन रख
कोशिश को अपना बना हथियार
जिसको तू न पा सका ऐ दिल वो
पायेगा तुझे , तू बस रहना तैयार।  
     
                 -विशाल "बेफिक्र"






















Monday, September 19, 2016

कोई एहसास हो

सुबह की पहली उजली किरण सा तुम
कोई एहसास हो
गगन में छाई हुई उस लालिमा का तुम
कोई प्रकाश हो।

सर्दी की  ठिठुरन से उठी कंपकंपी का
कोई आभास हो
नदी की इठलाती जलधारा देख मन में
उठी सी प्यास हो।

शाखा से लिपटी हुई उस हरित पत्ती सा
कोई लिबास हो
धरती के सीने पे बलखाती कोई मेनका का
नृत्य रास हो।

अतीत की उस अनलिखी किताब का तुम
कोई प्रयास हो
भविष्य को निहारती अनभिज्ञ नियति का तुम
कोई कयास हो।

                        -  विशाल "बेफिक्र"


ढूंढता निशान

ढूंढता निशान मैं उस
हसीं चमन का
सींचा था बागबाँ ने गुल
जो वतन का।

खोया है जोश , है आभूषण
जो यौवन का
कैसे सांस ले कि , जब
माहौल है दमन का
 
      विशाल"बेफिक्र"





क्यों राहें उससे अंजान है।

अजीब सी हैं उलझने
अजीब सा समाधान है
जिस मंजिल को तलाशता है तू
क्यों राहें उससे अंजान है।

क़भी ढंग से तो कभी बेढंग ही
काटता तू चट्टान है
जिस मूरत को तराशता है तू
उस बुत में भी क्या जान है।

अकाल काल बनकर यूँ सबके
सिर पे विद्यमान है
दो रोटियों न होती हैं नसीब वो
कौन सा संविधान है।

जिस मंजिल को तलाशता है तू
क्यों राहें उससे अंजान है।

                      विशाल "बेफिक्र"

हर ओर क़त्ल-ए-आम है।

हर गली नुक्कड़ चौराहे पे
ये अब आम है
जिधर भी देखता हूँ मैं हर ओर
क़त्ल-ए-आम है।

कहीं सुबह है सहमी सी कही
डरी सी शाम है
इंसानियत को देते ये लोग न जाने
कौन सा पैगाम हैं।

कभी दबी कभी रुकी सी आज
सबकी जबान है
अब क्यों रोती हुई सी लगती ये
कौन सी अजान है।

मासूमियत को रौंदते वो कौन जो
कुर्बान हैं
गुनाहों को जीते हैं न कसते इनपे
कोई लगाम हैं।

हर गली नुक्कड़ चौराहे पे
ये अब आम है
जिधर भी देखता हूँ मैं हर ओर
क़त्ल-ए-आम है।
         
            - विशाल "बेफिक्र"

Sunday, September 18, 2016

मिठाई का कारोबार

भिखारी लाल को अभी कोई दो साल  ही हुए होंगे अपनी नयी नौकरी ज्वाइन करे हुए. समय पे अपने काम पे आ जाना और समय पे अपने काम को भी पूरा कर लेने की आदत थी उसको. दिन रात काम करके शायद तरक्की के सोपानों पर वो कदम ताल करना चाहता था. तरक्की हुई. विभाग में पूर्व से उच्च पद में प्रोन्नति हो गई. पर क्या था जो भिखारी लाल को अंदर ही अंदर खाये जा रहा था. वो था अपने साथ ही ज्वाइन करने वाला लालचंद।
कारण भी सही था. साथ पढ़े , साथ में नौकरी लगी. मेहनत  भी लगभग बराबर की.क्या   कमी रह गयी जो उसके पास आज भिखारी लाल से ज्यादा बैंक बैलेंस , बड़ा बंगला, बड़ी गाड़ी और एक सुन्दर सी बीवी थी. ये बात भिखारी लाल को खाये जा रही थी. रातों की नींद तो छोड़िये जनाब दिन का चैन भी नसीब  न था उन जनाब को. फिर क्या मरता क्या न करता।  वो पहुँच ही गया लालचंद के पास. लालचंद भी था तो  पक्का यारों का यार. दोस्त का यह हाल उससे देखा न गया. वो अपने इस गुप्त रहस्य  से  आज पर्दा उठाने वाला  था . भिखारी लाल लालायित था, लालचंद के मुखारविंद से इस गुप्त विद्या को सुनने को. लालचंद ने बताया कि उसके पास एक मेज  है जो  पैसा उगलती है. उसने बताया की जब कोई फरियादी उससे किसी काम के लिए आता है तो वो मेज  के नीचे से हाथ मिलाने  मिठाई खिलाने को कहता है। भिखारी लाल को बोध हुआ.  भिखारीलाल समझ  गया था।  की उसको भी अब से मिठाई खाने  की आदत डालनी पड़ेगी. शुगर की दवा तो मिल ही जाती है न बाज़ार में बस  डॉक्टर भी मिल जाये जो खुद  शौक़ीन हो मिठाई खाने का। 

सत्य से दो चार हूँ

बेबस हूँ
लाचार हूँ
या इनका ही प्रकार हूँ।
उद्वेलित हूँ
आक्रोशित हूँ
या प्रतिशोध का शिकार हूँ।
विचलित हूँ
भयभीत हूँ
या सत्य से दो चार हूँ।
शोषित हूँ
कुष्ठित हूँ
या खुद ही व्यभिचार हूँ।
विचित्र हूँ
विक्षिप्त हूँ
या मन का कदाचार हूँ।
विरक्त हूँ
निशक्त हूँ
या कायरता का भण्डार हूँ।
रुग्ण हूँ
विकार हूँ
या बुराइयों का संसार हूँ।
भाव हूँ
बहाव हूँ
या मस्तिष्क का अधिभार हूँ।
      -विशाल "बेफिक्र"



मेरी भी एक कहानी है

शहीद नाम न दो
तुम अपनी असफलताओं का
ये रक्त बहता है
न कि रंग किसी त्यौहार का ।

वतन पे मिटता हूँ मैं
ये बलिदान नही मेरे गुनाहों का
बेवक़्त तनहा मरता हूँ
जहाँ न संग मेरे परिवार का ।

प्रहरी हूँ मैं तो क्या?
मेरी भी एक छोटी सी ज़िन्दगानी हैं
आदि अंत कुछ भी हो
जीवन पृष्ठ पे मेरी भी एक कहानी है।

            विशाल "बेफिक्र"

क़यामत का खौफ नहीं!

किसी शामत का डर
    नहीं है मुझको
मैं तो तेरी उस रुस्बाई
      से डरता हूँ।

किसी ईमारत की ख्वाइश
     नहीं है मुझको
मैं तेरे इस ताज-ए-हुस्न
     पे मरता हूँ।

किसी इबादत की जरूरत
      नहीं है मुझको
मैं तेरे चेहरे की आयत
      को पढता हूँ।

किसी अदालत से तस्दीक चाहिए
      नहीं है मुझको
मैं तेरे नज़रों के इन फैसलों
      को सुनता हूँ।

किसी क़यामत का खौफ
      नहीं है मुझको
मैं तेरी बस एक बेवफाई
      से डरता हूँ।
 
           विशाल "बेफिक्र"

किंचित हूँ

किंचित हूँ
लेकिन इस हाल पर
चिंतित हूँ

वंचित हूँ
लेकिन अप्राप्त पर
अचंभित हूँ

खंडित हूँ
लेकिन हुए विनाश से
चकित हूँ

रिक्त हूँ
लेकिन परिपूर्णता से
सिंचित हूँ

विक्षिप्त हूँ
लेकिन चित्त से
संतुलित हूँ

संलिप्त हूँ
लेकिन इस दौर से
वियुक्त हूँ

आसक्त हूँ
लेकिन भवसागर से
मुक्त हूँ

            -विशाल "बेफिक्र"

Saturday, September 17, 2016

अर्थ अनर्थ हो जायेगा यदि

अर्थ अनर्थ
हो जायेगा यदि
करते नहीं जो
कर सकते यद्यपि।

कारण अकारण
में बदल जायेगा यदि
करते नहीं प्रबंधन जो
कर सकते यद्यपि।

शांत अशांत
हो जायेगा यदि
करते नहीं सुनियोजित जो
कर सकते यद्यपि।

निर्विरोध विरोध
हो जायेगा यदि
करते नहीं निपटान जो
कर सकते यद्यपि।

सुख दुख
हो जायेगा यदि
करते नहीं अनवरत श्रम जो
कर सकते यद्यपि।

प्रेम द्वेष
हो जायेगा यदि
करते नहीं दूर बैर जो
कर सकते यद्यपि।

सम्मान अपमान
हो जायेगा
करते नहीं मंथन जो
कर सकते यद्यपि।
          -विशाल "बेफिक्र"

चाय क्यों नहीं लाया "छोटू" ?

मैं निकला सुबह सुबह
चाय पीने को
दुकान पहुँच आर्डर दिया
चाय लाने को
तभी पड़ी मेरी नज़र
अखबार पर
खबर थी बाल मज़दूरों की
रिहाई पर
अखबार पढ़ के मेरा
पारा हुआ गर्म
बाल मजदूरी कराते है इन्हें
आती नहीं शर्म
बच्चे तो स्वयं भगवान का
रूप होते हैं
फिर क्यों ये लोग भगवान से
दूर होते हैं
जिन हाथों में किताब
होनी चाहिए
क्यों उन पर जिम्मेदारी का बोझ
दे देते हैं
बच्चे तो इस देश का
भविष्य है
क्यों ये लोग इस बात से
अनभिज्ञ है
पढ़ते पढ़ते मेरा ध्यान गया
चाय पर
कहाँ मर गया ये "छोटू" अब तक
चाय क्यों नहीं लाया।
                -विशाल "बेफिक्र"

मैं तनहा था बरसों से

तेरा चेहरा ज्यों देखा
मैं सो न सका तबसे।
तेरी आँखें जब से देखी।
मैं कुछ देख न सका तबसे
तेरा दीदार-ए-हुस्न क्या हुआ
मैं खुद कोरोक न सका तबसे।
तेरी बातें जब से सुनी
मैं कुछ कह न सका तबसे।
तेरी जुल्फ़ें जबसे खुलीं
मैं भूल गया सब तबसे।
तेरी अदाएं जब से बढ़ीं
मैं कैसी उम्मीद मैं हूँ तबसे।
तेरा मिलना क्या हुआ
मैं तनहा था लगा क्यों बरसों से।
                    विशाल "बेफिक्र"

रुकने की चाह पर भी चला जाता हूँ

सोता हूँ मैं तो
नींद कहीं खो जाती है
उस गुजरे कल को
वो फिर से जी आती है
वक़्त का पहिया
भी थम जाता है
अतीत की ऐसी हवा
मैं जी आता हूँ
गिले शिक़वे कहीं
टटोल आता हूँ।

होता हूँ मैं यहीं पर
कहीं खो जाता हूँ
क्या सच या झूठ में
उलझ जाता हूँ
अपने होशोहवाश
कहीं खो जाता हूँ
उन रास्तों में कुछ
अपना सा पाता हूँ
इन मंजिलों में खुद को
वीरान पाता हूं।

चलता तो हूँ मैं पर
कहीं ठहर जाता हूँ
पाँवो में बेड़ियों से
जकड़ा हुआ पाता हूँ
रुकने की चाह पर भी
चला जाता हूँ
चलकर भी क्यों कुछ
पा नहीं पाता हूँ
रूककर ही न जाने क्यों
आसमान पाता हूँ।

                            -विशाल "बेफिक्र"

Friday, September 16, 2016

रास्ते हैं ओझल

चलने की और
तमन्ना होती
गर पैर डगमगाये
न होते ।
नज़र मंजिल की
ओर होती
गर रास्ते दिखाई
दिए होते ।।
         -विशाल "बेफिक्र"

नहीं चाहिए ऐसा संसार

जहाँ राम नाम न हो
जहाँ पूजा पाठ का काम न हो
जहाँ संस्कार न हो
जहाँ किसी का सत्कार न हो
हे भगवान ! हे प्राणनाथ !
नहीं चाहिए। नहीं चाहिए।

जीवन तो हो पर प्राण न हो
सांस तो ले पर दम निकले
जागना तो हो जाग्रति न हो
काम तो हो पर नाम न हो
दिल तो हो जान न हो
हे प्रभु ! हे ईश्वर !
नहीं चाहिए। नहीं चाहिए।

सपना तो हो पर पूरा न हो
उम्मीद तो हो पर आशा न हो
प्यार तो हो पर प्रेम न हो
दोस्त तो हो पर साथी न हो
जहाँ दर्द तो हो ख़ुशी का आगमन न हो
हे स्वामी! हे पालनहार !
नहीं चाहिए ऐसा संसार !
नहीं चाहिए ऐसा संसार !
   
                   -विशाल "बेफिक्र"

जुगनू का हश्र

जीने की वजह क्यों
तलाशता हूँ मैं इस कदर
जैसे जानता नहीं
मौत ही है आखरी डगर ।

हंसने की वजह क्यों
ढूढता हूँ मैं हूँ इधर उधर
जैसे जानता नहीं
ख़ुशी वहीँ है देखूं जिधर।

उड़ने को रहता हूँ क्यों
बेताब बेहिसाब मैं इस क़दर
जैसे जानता नहीं
रहना यहॉ जमीं पर उम्र भर।

चमकने को रहता हूँ क्यों
मैं इतना बेहद बेसबर
जैसे जानता नहीं
मैं उस जुगनू का क्या होता हशर।
           -विशाल "बेफिक्र"
      

अजीब मुश्किल

मुझे रात के आने से
मुश्किल नहीं है,
मुझे रात के छाने से
मुश्किल नहीं है।
मुश्किल है तो बस
इतनी सी जनाब
रात आती है मेरी तो
ढलती नहीं है,
रात आती है मेरी तो
कटती नहीं है।
                  -विशाल "बेफिक्र"

वो संसार नहीं है

गुजारा तब भी हुआ करता था
जब हमें,
दो रोटी एक प्याज संग नमक
मिल जाया करता था,
माँ का प्यार और पिता का दुलार
मिल जाया करता था,
भाई और बहिन का सारा संसार
मिल जाया करता था।
क्या हुआ अचानक हमको
ए मेरे यार अब,
सब कुछ तो है मेरे पास पर वो
प्यार नहीं है,
दुलार नहीं है,
संसार नहीं है।
        -विशाल "बेफिक्र"

मैं चित्रकार हूँ

मैं चित्रकार हूँ
न कर मुझसे कोई उम्मीद , मित्र
कर सकते हैं कुछ बयाँ
गर तो कर सकते मेरे चित्र।

मैं गीतकार हूँ
न करो मुझसे किसी की आस, मीत
कर सकते हैं कुछ बयाँ
गर तो कर सकते मेरे गीत।

मैं शिल्पकार हूँ
न कर सकता ईमारत की संरचना
कर सकती है कुछ बयाँ
गर तो कर सकती मेरी कल्पना।

मैं कलाकार हूँ
न कर सकता मैं किसी का भला
कर सकती है कुछ बयाँ
गर तो कर सकती मेरी कला।

मैं रचनाकार हूँ
न करो मुझसे किसी मर्म की आस
कर सकते हैं कुछ बयाँ
गर तो कर सकते ये एहसास।

             -विशाल "बेफिक्र"

क्यों गरजते हो इतना तुम?

क्यों गरजते हो इतना तुम
बादल हो क्या?
क्यों भडकते हो इतना तुम
ज्वाला हो क्या?

क्यों घबराते हो इतना तुम
भयभीत हो क्या?
क्यों गुनगुनाये जाते हो तुम
गीत हो क्या?

क्यों महकते हो इतना तुम
कोई फूल हो क्या?
क्यों चहकते हो इतना तुम
कोई पक्षी हो क्या?

क्यों जलते हो इतना तुम
कोई दिया हो क्या?
क्यों पूजते हो इतना तुम
कोई पुजारी हो क्या?

क्यों रोते हो इतना तुम
कोई नवजात हो क्या?
क्यों दिखतें हो अंजान इतना
कोई अज़नबी हो क्या?

क्यों करते हो अहंकार इतना
कोई राजा हो क्या?
क्यों करते हो हर वक़्त माँग
कोई भिखारी हो क्या?

क्यों करते नहीं कोई काम
कोई अनाड़ी हो क्या?
क्यों जपते फिरते हो माला
कोई ढोंगी हो क्या?

क्यों हो इस जग से वीरान
कोई हवाई हो क्या?
जीवन का है क्या मूल क़भी
समझ पाये हो क्या?
             -विशाल "बेफिक्र"

Thursday, September 15, 2016

Abcd तो फर्राटे से सुनाता है।

शायद अभी एक महीना ही गुज़रा होगा जब मेरे माता पिता मुझसे मिलने आये। मैं एक सरकारी कंपनी में कार्यरत हूँ। बहुत ही प्रफुलित थे वो भी मैं भी शायद माँ बाप बेटे का मिलन जो काफी दिनों बाद हुआ था। वो अपने साथ मेरे भांजे जोकि अभी 3 वर्ष के आस पास था लाये थे। हम खूब एक दूजे से अपनी व्यथा गाथा सुना रहे थे। तभी यकायक मुझे खुजली सूझती है कि मैं अपने भांजे से पूछता हूँ बेटा जरा कुछ सुनाना। इतना कहना भर था कि उधर से मेरी माँ आयी बोली बेटा उसको सारी ABCD याद है। मैं खुश था क्योंकि मुझे ये सब याद करने में बहुत समय लग गया था। उसने धीरे धीरे सारी ABCD मुझे सुना दी। मेरी माँ अपने नवासे की तारीफ करते नहीं थक रही थी की उसे इंग्लिश का इतना ज्ञान है मात्र इतनी सी उम्र में। मैं अधीर हो उठा। शायद बहुत ज्यादा खुश हो गया था। मैंने उससे ओलम (हिंदी की वर्णमाला) भी पूछ ली। इस बार वो मूक था। और मेरी माँ को कोई मतलब नहीं था। शायद मेरा प्रश्न ही गलत था। हिंदी का ज्ञान भी कोई ज्ञान है। धत। मैं भी क्या पूछ रहा हूँ। क्यों वापस बाबा आज़म के ज़माने को दोहरा रहा हूँ। समय बदल गया है। और हम भी।