सुबह की पहली उजली किरण सा तुम
कोई एहसास हो
गगन में छाई हुई उस लालिमा का तुम
कोई प्रकाश हो।
सर्दी की ठिठुरन से उठी कंपकंपी का
कोई आभास हो
नदी की इठलाती जलधारा देख मन में
उठी सी प्यास हो।
शाखा से लिपटी हुई उस हरित पत्ती सा
कोई लिबास हो
धरती के सीने पे बलखाती कोई मेनका का
नृत्य रास हो।
अतीत की उस अनलिखी किताब का तुम
कोई प्रयास हो
भविष्य को निहारती अनभिज्ञ नियति का तुम
कोई कयास हो।
- विशाल "बेफिक्र"
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