किसी शामत का डर
नहीं है मुझको
मैं तो तेरी उस रुस्बाई
से डरता हूँ।
किसी ईमारत की ख्वाइश
नहीं है मुझको
मैं तेरे इस ताज-ए-हुस्न
पे मरता हूँ।
किसी इबादत की जरूरत
नहीं है मुझको
मैं तेरे चेहरे की आयत
को पढता हूँ।
किसी अदालत से तस्दीक चाहिए
नहीं है मुझको
मैं तेरे नज़रों के इन फैसलों
को सुनता हूँ।
किसी क़यामत का खौफ
नहीं है मुझको
मैं तेरी बस एक बेवफाई
से डरता हूँ।
विशाल "बेफिक्र"
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