Wednesday, September 21, 2016

फूल की पीड़ा

काँटों की चुभन
तब सोच के
तोड़ते हो
न तुम फूल।
बस यही स्वार्थ है जब
टूटन की
उस पीड़ा
को जाते हो भूल।।

मुझको मिला
क्या नहीं मिला?
गुर्राते हो जब
इस बात पे हुज़ूर
बस यही क्रोध भाव है
दरिद्र और दलिद्र
उस रोष
का किसे देवें कसूर।।

ज़माना बदला है
सोचते हो जब
बदल गए
हैं सारे रिश्ते नाते
बस यही विकार है जब
खुद कोई
कैसा भी
रिश्ता न तुम निभाते।।

      -विशाल "बेफिक्र"

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