Sunday, June 25, 2017

बूंदों का मरहम

झुलसा है ये बदन कि अब
बूंदों का मरहम लग जाने दो
थपेडे सहे हैं जो लू के अब
इन बौछारों से सहलाने दो
ऊबा से है मन इस खुश्की से
उन्मत्त पवन को  रिझाने दो
खोया सा यौवन है उपवन का
कुछ तो नव जीवन भर जाने दो
जलता सुलगता सा आसमां
थोड़ा खुशगवार तो हो जाने दो
जीर्ण शीर्ण ये मन तन जीवन
कुछ तो नव शक्ति भर जाने दो
बिछड़े से बिखरे से त्रस्त परिंदों को
अब तो मस्त मगन हो जाने दो
प्यासी है नदियां झरने भी है खाली
जल की धारा को बह जाने दो
सोया है जहान  गहरी सी नींद में
अब तो इसकी आंखें खुल जाने दो।

-विशाल "बेफिक्र"