फिर से ज़िन्दगी को
मैं जी आता हूँ,
बासी रिश्तों को ताजा
मैं कर आता हूँ।
उन कोरे पन्नो पे कुछ
लिखना था कभी,
उन पन्नो को कुछ तो
मैं भर आता हूँ।
कहना बहुत था लेकिन
किसको और कितना?
भूल लाज-शर्म अब वो
मैं कह ही आता हूँ।
फासलें पनपेते अपनों में,
किसी वजह से,
जाने-अनजाने के फासलों को
मैं पाट आता हूँ।
बहुत रह लिए गुमराह होकर
खुद की सच्चाई से,
झूठों के पर्दों से बेनक़ाब
मैं हो ही आता हूँ।
दुनिया मुझसे ही थी,
आ दुनिया की फिक्र करते
उस बोझिल 'मैं' को कहीं
अब मैं विसराता हूँ।
जो है ,वो अभी है, यहीं है,
और हमीं से है,
ये आसमां जुड़ा जब ,
कहीं तो जमीं से है ।
क्यों न मैं भी बस जीने
भर की ही सोचूँ,
यह कहना बस ही मेरा ,
आप सभी से है।
-विशाल 'बेफ़िक्र'
No comments:
Post a Comment