इन मज़हब के उन्मादो में कोई
कब चैन पाया है ।
कहीं राम कहीं खुदा ये देख आज
खूब शरमाया है ।
सेंकी थी रोटी स्वारथ की जिसने
उन्माद की इस आग में
क्या भूखे कमजोर का उससे कभी
पेट भरपाया है ।
मजहब की दीवारों पे अब तो
हुक्मरानों का भी साया है ।
करते थे बातें दीवारों के जरिये अबतो
उन सूराखों को भी भरवाया है ।
हाँ हमसे एक भूल हुई घर बनाते
समय इस हसीं दुनिया में
इमारत को ऊंचा करते रहे और
नींव को न भरवाया है ।
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