Saturday, September 17, 2016

रुकने की चाह पर भी चला जाता हूँ

सोता हूँ मैं तो
नींद कहीं खो जाती है
उस गुजरे कल को
वो फिर से जी आती है
वक़्त का पहिया
भी थम जाता है
अतीत की ऐसी हवा
मैं जी आता हूँ
गिले शिक़वे कहीं
टटोल आता हूँ।

होता हूँ मैं यहीं पर
कहीं खो जाता हूँ
क्या सच या झूठ में
उलझ जाता हूँ
अपने होशोहवाश
कहीं खो जाता हूँ
उन रास्तों में कुछ
अपना सा पाता हूँ
इन मंजिलों में खुद को
वीरान पाता हूं।

चलता तो हूँ मैं पर
कहीं ठहर जाता हूँ
पाँवो में बेड़ियों से
जकड़ा हुआ पाता हूँ
रुकने की चाह पर भी
चला जाता हूँ
चलकर भी क्यों कुछ
पा नहीं पाता हूँ
रूककर ही न जाने क्यों
आसमान पाता हूँ।

                            -विशाल "बेफिक्र"

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