Wednesday, September 6, 2017

तुझमें भी क्या जान है

एक सांस रुकी है ,
एक आस मरी है ,
हत्यारे ! लेकिन सुन अभी
आवाज़ ज़िंदा है !
देश शर्मिंदा है ।

जुर्म बेहिसाब चाहें
कत्ल-ए-आम कर
पापी ! लेकिन सोच लेना
वक़्त कब गुलाम है ?
बदलता आयाम है।

मौत का उपहास कर
सेंकते जो रोटियाँ
बेदर्द! देख ज़रा अपने अंदर तू
मृत है, जीकर भी
तुझमे भी क्या जान है !

रंग चढ़ा है तुझपे ये जो
सिर्फ उन्माद है क्षण भर का
बेपरवाह! आंख खोल कभी
अंधा है, आंखों के साथ
नज़र क्यों धुंधलाई है !

चोगा है पहना सत्य का
वो सत्य कब था , है या होगा ?
हठधर्मी! करता है क्यूं ऐसी हठ
असत्य है, कोसों दूर सच से
झूठी सच्चाई अपनायी है !

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