Friday, September 15, 2017
हर आते त्यौहार में
बुलेट ट्रेन-सौतन
जीर्ण शीर्ण सी हालत मेरी,
और तुम!
मेरी सौतन क्यों लाते हो?
रुक कर झुक कर चलती मैं,
क्यों तुम!
मुझे वैद्य पे न ले जाते हो ?
सुना बड़े बलवीर हो तुम,
फिर क्यों!
कायरता पे यूँ इतराते हो ?
हृदय-प्रिय जो कभी थी मैं
क्यों आज!
सौतन का गृह-प्रवेश कराते हो?
अपनों को छोड़ गैरों की राह
पर क्यूँ तुम!
तुम छोड़ मुझे चले जाते हो
दुर्दशा देख ऐसी मेरी तुम
शायद तुम!
खुद से ही बेशर्मी से शर्माते हो।
ज्यादा न सोचो मेरे बारे में तुम
अब क्या?
मैं तो नीरस जीवन जी ही लूँगी
दीन, दुखी, अबलों, विकलों को
मैं ढोती हूँ!
आगे भी बिन मुंह खोले ढो ही लूँगी।
Thursday, September 14, 2017
क्षमा माँगती हिंदी
मैं हिंदी हूँ,क्षमा प्रार्थी हूँ
उस युग की जिसने मेरा
उद्भव, पोषण कर के
आज यहाँ जीवंत रखा ।
मुझमें ही रहा दोष जो
इस युग में संकुचाकर भी
शोषण, तिरस्कार जो
हर पल हर पग मैने सहा ।
समय अनवरत है जो चलता
रहा बिन रुके और थके
भूल समझती हूँ मैं अपनी तो
सब बदले जो मैं न बदली ।
अपनी ही उन स्वर्णिम यादों
के उन पल में खोई सी
छोड़ चली अपना सब कुछ
थी शायद थोड़ी सी पगली ।
मेरा क्या ?मेरी बहनों का
भी मेरे जैसा ही हाल है
बोलने लिखने में लोगों की शर्म
से उनका भी बुरा हाल है ।
काश हम भी पाश्चात्य हो
जाते अंग्रेजी की तरह
नई भाषा समझ सीखते सब
करते न कोई हमसे सवाल है ।
-बेफ़िक्र
Saturday, September 9, 2017
आवाज़ों को दबते देखा है !
कहीं दूर किसी डगर पर
बस्ती जो कभी हुआ करती थी,
आज वहाँ जाती उस पगडंडी
के अवशेष मैं ढूँढा करता हूँ ।
सींचा था जो प्रेम-स्नेह
परवाह न निज स्वार्थ कर,
वो सब समझाऊँ कैसे ,किसे ?
जब खुद कुंठित सा बैठा हूँ ।
बहु-विचार बहु-आयाम कभी
होते थे गहने वाद-विवादों के,
अब तो सारे मंचों से मैंने तो
उन आवाज़ों को दबते देखा है ।
सादा सा जीवन ऊंचे वो विचार
थी आदर्शवाद की जो पहचान,
झूठी शान,क्षणभंगुर मान के लिए
उस पहचान को मिटते देखा है ।
प्रथम देश , गौण है बाकी सब
इससे हम अब तक एकरूप रहे,
छद्मता ने अब तो हमारी उस
राष्ट्र-भक्ति को भी तौले रखा है ।
चिड़ियों की मीठी ध्वनि सुन सुबह
होती थी रोज कभी मेरी तब,
अब उनकी जगह करुण-क्रंदन करते
कौवे की कर्कशता सुना करता हूँ ।
पुराना दौर था पर दायरा बड़ा था
हर पग पे कोई सिद्धांत अड़ा था,
बेशर्म, बेअदब इस दौर को सिद्धांतों के
दायरों में छिद्र करते मैंने देखा है।
Thursday, September 7, 2017
भूख और बेबसी
खाने का निवाला नसीब न जिनको
सोये जो रात , जिन्हें नींद कहाँ आयी है
ऐंठन सी उठती है पेट में उनके ,क्योंकि
पेट मे सिर्फ बेबसी और लाचारी समायी है ।
उठ उठ कर , जाग जाग कर उनकी ये
रातें तो कटती हैं, कट ही जाएंगी आगे भी
मिले वक़्त ,पूछो उनसे तुम बस इतना ही
रातों में नींद, उन्हें कितने पहर ही आयी है ।
रोटी की कीमत क्या होती है, जानोगे जब
उस दिन ,भर पेट भी नींद गायब होगी आंखों से
रात के उन सन्नाटों में ,जैसे खोजोगे वो दिन
जब कोई बेबस, तड़पता, मरता भूख से उन दिन ।
Wednesday, September 6, 2017
तंत्र की विफलता है
कथन वचन या मंथन
सब के सब बेमानी हैं
कट्टरता घृणा उन्माद का
भी क्या कोई सानी है ।
वाद विवाद या संवाद
से भी कुछ होता है
चीख चिल्लाहट से तोे हमने
देखा बस सच खोता है ।
'पहले आप' की तहजीब
शायद अब सो गई है
मैं पहले , मेरा ही पहले अब
हो ऐसा, न तो शामत आई है ।
मानते हममे विचार, प्रकार
और आचार की बहुलता है
दबे विचार, सहमे प्रकार आज
इस तंत्र की विफलता है ।
तुझमें भी क्या जान है
एक सांस रुकी है ,
एक आस मरी है ,
हत्यारे ! लेकिन सुन अभी
आवाज़ ज़िंदा है !
देश शर्मिंदा है ।
जुर्म बेहिसाब चाहें
कत्ल-ए-आम कर
पापी ! लेकिन सोच लेना
वक़्त कब गुलाम है ?
बदलता आयाम है।
मौत का उपहास कर
सेंकते जो रोटियाँ
बेदर्द! देख ज़रा अपने अंदर तू
मृत है, जीकर भी
तुझमे भी क्या जान है !
रंग चढ़ा है तुझपे ये जो
सिर्फ उन्माद है क्षण भर का
बेपरवाह! आंख खोल कभी
अंधा है, आंखों के साथ
नज़र क्यों धुंधलाई है !
चोगा है पहना सत्य का
वो सत्य कब था , है या होगा ?
हठधर्मी! करता है क्यूं ऐसी हठ
असत्य है, कोसों दूर सच से
झूठी सच्चाई अपनायी है !
Tuesday, September 5, 2017
वर दे !
ये कलुषित मन और नीरस जीवन
निर्मल निश्छल रसमय अब कर दे
क्रोध लोभ मोह युक्त हृदय को
फिर से शांत विरक्त अब कर दे
सूना बिन बाल-क्रीड़ा आंगन सा
जीवंत सुखद मन अब कर दे
चीत्कार हाहाकार सा इस जग में
फिर मस्त-मगन अब तू कर दे
कटुता विष अंतर जो अवगुण है
मधुरता शुचिता समभाव अब कर दे
हे ईश्वर! हे प्राणनाथ! हे प्रभु!
मुझको ऐसा ही कुछ तू वर दे !
-विशाल' बेफ़िक्र'
Monday, September 4, 2017
कैसा भय?
मृत्यु को जीवन से भय क्या?
भय भी कोई सच्चाई है?
जग नश्वरहै ,जाता है , जाएगा
तूझपे भी काल-परछाई है ।
भय भ्रम है,शापित है नित्य
दुर्बल को ही सतायेगा यह
वीर ,बली ,मनवीर के तो ये
निकट भी न आ पायेगा ।
जग में शोषित पीड़ित है वो
गूंज जो न उठाएगा
कुकृत्य को सहते हुए भी अपने
मुख में शब्द न लाएगा ।
शूरवीर है मन से जो वो तो
अपनी बात सुनाएगा
अधिकारों से वंचित न हो वो
अपनी नव गंगा बहायेगा ।
-विशाल 'बेफ़िक्र'
Saturday, September 2, 2017
मन भंवर सा गुम हो
नींद पलकों से कब जाएगी
सोने का बहाना जब तुम हो
सपनों के बगिया में जैसे कोई
मेरा मन-भंवर सा गुम हो।
तारों के बीच खोता न चमक
ऐसे चाँद की झलक तुम हो
शीतल चाँदनी में घुली सी कोई
ताज़ी मन-मोहक बयार तुम हो।
- "बेफ़िक्र"
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तेरी हर ख़्वाहिश को पूरा करने को ये दिल चाहता है तुझसे मुहब्बत की आजमाइश को ये दिल चाहता है मुकम्मल जहाँ तब होगा नसीब ऐ मेरे यार अपना तो...
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ज़िंदगी बस जीए जा रहा हूं
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Daily Editorials 1. Trouble in Nepal: On Nepal Communist Party factional fight https://www.thehindu.com/opinion/editorial/trouble-in-nepal-...